Saturday, 7 October 2023

237 प्रसन्नात्मा prasannātmā Ever pure and all-blissful self.

237 प्रसन्नात्मा prasannātmā Ever pure and all-blissful self.
The term "प्रसन्नात्मा" (prasannātmā) in Sanskrit can be understood as "ever pure" and "all-blissful self." It refers to the inherent nature of the self or the soul, which is characterized by purity, clarity, and eternal bliss.

The word "प्रसन्न" (prasanna) signifies a state of being clear, serene, and radiant. It implies a mind and consciousness that are free from impurities, negativity, and disturbances. It represents a state of inner clarity, joy, and contentment.

The term "आत्मा" (ātmā) refers to the individual self or soul, which is considered to be eternal and unchanging. It is the inner essence or consciousness that transcends the physical body and identifies with the higher spiritual reality.

When we combine the two, "प्रसन्नात्मा" (prasannātmā) represents the inherent nature of the self, which is ever pure and eternally blissful. It denotes a state of being where the self is free from all limitations, afflictions, and suffering. It is the state of experiencing one's true nature as pure consciousness and boundless bliss.

In spiritual teachings, it is believed that the true nature of the self is inherently blissful and free from all forms of suffering. It is considered to be the source of all happiness, joy, and contentment. However, due to ignorance and identification with the transient aspects of existence, individuals may lose touch with their inherent blissful nature.

The term "प्रसन्नात्मा" (prasannātmā) serves as a reminder of our true nature and invites us to reconnect with our inner bliss and purity. It encourages us to cultivate a clear and serene state of mind, free from negativity and disturbances. By recognizing our essential nature as the ever-pure and all-blissful self, we can experience true happiness and fulfillment.

In summary, "प्रसन्नात्मा" (prasannātmā) refers to the ever-pure and all-blissful nature of the self. It represents a state of inner clarity, joy, and contentment. By realizing and embracing this inherent nature, one can experience true happiness and liberation from suffering.


237 चारितात्मा प्रसन्नात्मा सदैव शुद्ध और सर्व-आनंदमय आत्मा
"प्रसन्नात्मा" शब्द का अर्थ सदैव शुद्ध और सर्व-आनंदमय आत्मा है। इस शब्द की व्याख्या परमात्मा के वर्णन के रूप में की जा सकती है, जो अशुद्धियों से पूरी तरह मुक्त और शाश्वत आनंद से परिपूर्ण है।

हिंदू दर्शन में, मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना है, जो स्वयं के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति के माध्यम से प्राप्त होता है। इस वास्तविक प्रकृति को परमात्मा के समान कहा जाता है, और पवित्रता, आनंद और ज्ञान जैसे गुणों की विशेषता है। "प्रसन्नात्मा" शब्द एक अनुस्मारक है कि स्वयं स्वाभाविक रूप से आनंदित है और हमें किसी भी अशुद्धियों या गलत धारणाओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए जो हमें आनंद की इस आंतरिक स्थिति का अनुभव करने से रोकती हैं।

मानवीय अनुभव की तुलना में, हम अक्सर खुद को खुशी और दुख की अवस्थाओं के बीच उतार-चढ़ाव करते हुए पाते हैं, अक्सर बाहरी परिस्थितियों या आंतरिक मानसिक अवस्थाओं के कारण। इसके विपरीत, परमात्मा को हमेशा शुद्ध और सर्व-आनंदमय कहा जाता है, जो हमारे चारों ओर बदलती दुनिया से पूरी तरह से अछूता है। परमात्मा के इस पहलू को समझकर और उसे मूर्त रूप देकर, हम जीवन की चुनौतियों के बीच भी आंतरिक शांति और संतोष की भावना विकसित कर सकते हैं।

इसके अलावा, "प्रसन्नात्मा" शब्द को कार्रवाई के आह्वान के रूप में भी समझा जा सकता है। अपने भीतर परमात्मा को पहचानकर और पवित्रता और आनंद की स्थिति की ओर प्रयास करके, हम अपने आसपास की दुनिया में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। हमारे कार्य दिव्य इच्छा की अभिव्यक्ति बन जाते हैं, आंतरिक शांति और स्पष्टता की गहरी भावना से निर्देशित होते हैं। इस प्रकार, "प्रसन्नात्मा" शब्द हमारे वास्तविक स्वरूप और दुनिया में सकारात्मक प्रभाव डालने की हमारी क्षमता की याद दिलाता है।


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