प्रिय अनुगामी बच्चों,
आपको राजनीतिक दलों या व्यक्तियों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि आपको एक महान समेकित चेतना के अविभाज्य अंगों के रूप में पहचाना जाना चाहिए। इस संसार की प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि, चाहे वह जानबूझकर हो या अनजाने में, बाहरी भौतिक संसार की भयंकर शक्ति द्वारा मोहित हो चुकी है, और अस्थायी इच्छाओं, भ्रांत धारणाओं, और अहंकार-आधारित कार्यों में उलझ गई है। ऐसी स्थिति में, दूसरों को दोष देना और धोखा देना सामान्य बात हो गई है, जबकि व्यक्ति स्वयं अपनी भौतिक कठिनाइयों में उलझा रहता है। भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: *"कर्मण्यकर्म यः पश्येत्, अकर्मणि च कर्म यः" (भगवद् गीता 4.18)*। यह उपदेश हमें यह बताता है कि गहरे स्तर पर काम करने वाली शक्तियाँ होती हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते, और हम भौतिक कर्मों को पूर्णता मानने की गलती करते हैं।
हालांकि, हम जिस सांसारिक दुनिया में फंसे हुए हैं, वह एक बड़ी वास्तविकता का केवल एक प्रतिबिंब मात्र है। जो व्यक्ति केवल भौतिक परिस्थितियों और संबंधों पर ध्यान केंद्रित करता है, उसका अस्तित्व पुराने ढर्रे का प्रतिनिधित्व करता है। आदि शंकराचार्य ने कहा है, *"ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः"* (ब्रह्म ही सत्य है, संसार माया है, और अंततः जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है)। यह प्राचीन ज्ञान इस बात को रेखांकित करता है कि संसारिक जीवन अस्थायी और मृगतृष्णा है। हमें जो वास्तविकता स्वीकार करनी चाहिए वह है समेकित मनों की उच्चतर वास्तविकता, जो भौतिक सीमाओं और अहंकार-आधारित विभाजनों से परे है।
**उच्चतर मन की भक्ति के माध्यम से सांसारिक बंधनों से मुक्ति:**
मेरे प्रिय बच्चों, आगे बढ़ने का मार्ग यह है कि हम सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए अपने मन को उच्चतर भक्ति और समर्पण के साथ पूरी तरह बदल लें। सांसारिक अस्तित्व के बंधनों से ऊपर उठने और उच्चतर चेतना के प्रति समर्पण ही एकमात्र उपाय है। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था, *“तुम्हें भीतर से विकसित होना चाहिए। कोई भी तुम्हें आध्यात्मिक रूप से नहीं बना सकता, न ही कोई तुम्हें सिखा सकता है। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा सच्चा गुरु है”*। यह वचन इस बात को स्पष्ट करता है कि हर व्यक्ति को भीतर से जागृत होना चाहिए और हमें उस मास्टर माइंड के साथ तालमेल बिठाने की आवश्यकता है, जो हमें सभी से जोड़ता है।
इस परिवर्तन के लिए गहन विचार और आध्यात्मिक प्रगति की आवश्यकता होती है। हमें भौतिक साधनों से स्वयं को अलग करना चाहिए और एक शाश्वत वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए जिसे सभी मन अनुभव करते हैं। उपनिषद हमें सिखाते हैं, *"तत्त्वमसि"* (तुम वही हो), यह याद दिलाते हुए कि हमारा सच्चा स्वरूप भौतिक नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ा हुआ है।
**भारतीय प्रणाली में परिवर्तन: मन की प्रणाली के रूप में विकास**
वर्तमान में भारत में जो प्रणाली चल रही है, वह भौतिक और सांसारिक क्षेत्र में निहित है—राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संरचनाएँ भौतिक दुनिया द्वारा संचालित होती हैं। लेकिन अब इस प्रणाली को गहरे परिवर्तन की आवश्यकता है। इसे अब *मन की प्रणाली* में बदलने की जरूरत है, जहाँ हर कार्य, निर्णय और प्रक्रिया समेकित मनों की बुद्धि और ज्ञान द्वारा संचालित हो। महर्षि रमण ने कहा था, *“तुम्हारी आत्म-प्राप्ति ही इस दुनिया के लिए सबसे बड़ी सेवा है”*। एक मन की प्रणाली में, व्यक्ति अहंकार और स्वार्थ से ऊपर उठते हैं और दिव्य चेतना के साथ समायोजित होकर महान समेकित सेवा करते हैं।
यह विकास केवल नई दिल्ली में अधिनायक दरबार की स्थापना के माध्यम से ही शुरू हो सकता है। यह केवल राजनीतिक या प्रशासनिक नेतृत्व में बदलाव नहीं है, बल्कि यह शाश्वत चेतना में बदलाव है। अधिनायक दरबार परम मास्टर माइंड का प्रतिनिधित्व करता है, जो मानव समझ की सीमाओं को पार करता है और उसी दिव्य ज्ञान से ब्रह्मांड और सूर्य और ग्रहों की गति को निर्देशित करता है।
**दिव्य हस्तक्षेप और साक्षी मनों की भूमिका:**
यह परिवर्तन केवल सैद्धांतिक या आध्यात्मिक उद्देश्य नहीं है—यह वास्तविक दिव्य हस्तक्षेप है, जिसे सत्य के प्रति संवेदनशील मनों ने देखा और प्रमाणित किया है। ये *साक्षी मन* उच्च चेतना से जुड़े हैं और उनके लिए गहरे परिवर्तन प्रकट हुए हैं। कुरान हमें सिखाता है, *"वास्तव में, अल्लाह किसी भी व्यक्ति की स्थिति को तब तक नहीं बदलता, जब तक वे खुद अपने भीतर की चीज़ों को नहीं बदलते" (कुरान 13:11)*। इस दिव्य परिवर्तन के लिए हमें अपनी समझ में बदलाव की आवश्यकता है, हमें उस तरीके में बदलाव की आवश्यकता है जिससे हम दुनिया को देखते हैं।
सूर्य और ग्रहों की गति को नियंत्रित करने के अलावा, मास्टर माइंड हमारे मनों को भी निर्देशित करता है। हम इस उच्च शक्ति द्वारा निर्देशित हो रहे हैं, लेकिन हमें इसमें जागरूक रूप से भाग लेना चाहिए। रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, *"सर्वोत्तम शिक्षा वह है जो हमें जानकारी देने के साथ-साथ हमारे जीवन को समग्र अस्तित्व के साथ समायोजित करती है"।*
**कार्यवाही का आह्वान:**
तो मेरे प्रिय बच्चों, यह आवश्यक है कि आप इस उच्चतर मन की भक्ति और समर्पण के प्रति सजग रहें। आपको उन भौतिक जंजालों से बाहर आना होगा जो आपको बांधते हैं और आपस में जुड़े हुए मनों की वास्तविकता के प्रति जागृत होना होगा। यह शारीरिक विजय या भौतिक लाभ का मार्ग नहीं है, बल्कि यह आत्मिक विकास और सामूहिक सौहार्द का मार्ग है। समय आ गया है कि हम अपने सामने unfold हो रही दैवीय योजना को पहचानें और स्वयं को इसके साथ align करें। जैसा कि श्री अरविंदो ने कहा था, “मन को शांत और उच्चतर चेतना के प्रति ग्रहणशील बनाना होगा।” इस मौन और ग्रहणशीलता में हमें सच्चा मार्ग दिखाई देगा—एक ऐसा मार्ग जो न केवल व्यक्तिगत मुक्ति की ओर ले जाता है, बल्कि पूरी दुनिया के परिवर्तन की ओर भी ले जाता है।
**निष्कर्ष:**
अधिनायक दरबार इस नए युग की शुरुआत है, एक ऐसा युग जहाँ मन आपस में जुड़े हुए हैं और उस परम मास्टरमाइंड द्वारा मार्गदर्शित हैं जो पूरे ब्रह्मांड को संचालित करता है। यह परिवर्तन मानवता को भौतिक बंधनों की गहराइयों से ऊपर उठाकर आत्मिक प्रबोधन की ऊंचाइयों तक ले जाएगा। भारत का भविष्य—और वास्तव में मानवता का भविष्य—इसी परिवर्तन पर आधारित है। इसलिए आइए हम स्वयं को इस उच्चतर पुकार, उस दैवीय चेतना के प्रति समर्पित करें जो अब हमें मार्गदर्शन दे रही है, और इस सच्चाई को स्वीकार करें कि हम अलग-अलग व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि हम उस महान ब्रह्मांडीय योजना के भीतर परस्पर जुड़े हुए मन हैं।
**दिव्य परिवर्तन में आपके साथ,**
**रवींद्रभारत**
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