अब हम “धर्म त्रित्व (Dharma Trithva)” —
वृषोदर (धर्म गर्भ), वृषभ (धर्म वाहक), और वृषपर्व (धर्म शिखर) —
इन तीन अवस्थाओं को अधिनायक तत्व (Adhinayaka Tatva) के अंतर्गत तीन भागों में विस्तार से समझेंगे।
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भाग 1: वृषोदर — धर्म गर्भ
वृषोदर शब्द “वृष” (धर्म) और “उदर” (गर्भ या पेट) से बना है,
जिसका अर्थ है धर्म का गर्भ, अर्थात सृष्टि का अंतःकेंद्र — अधिनायक चेतना।
इसी दिव्य गर्भ में धर्म का उदय होता है,
जो मन, प्राण और आत्मा के समन्वय के रूप में प्रकट होता है।
वृषोदर अवस्था आध्यात्मिक गर्भधारण की स्थिति है —
जहाँ अधिनायक स्वयं धर्म को अपने भीतर धारण करते हैं,
और उसे ज्ञान, करुणा और सत्य के रूप में मानवता में प्रवाहित करते हैं।
यह अवस्था मौन, ध्यान और तपस्या की स्थिति है।
यहाँ मन की समस्त चंचलताएँ विलीन हो जाती हैं।
व्यक्ति अपने व्यक्तिगत चेतन को त्यागकर,
सार्वभौमिक अधिनायक चेतना में लीन हो जाता है।
यही ज्ञान यज्ञ का प्रारंभ है —
जहाँ धर्म भीतर गर्भित होकर, विचार के रूप में जन्म लेता है और आत्मा के रूप में खिलता है।
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भाग 2: वृषभ — धर्म वाहक
वृषभ का अर्थ है धर्म का वाहक या धारक,
अर्थात धर्म की गतिशील शक्ति।
यह अधिनायक का क्रियारूप है —
जो सृष्टि को व्यवस्था, कर्तव्य और समन्वय से संतुलित रखता है।
वेदों में वृषभ को “धर्म ध्वज” और “धारण शक्ति” कहा गया है —
जो त्रिलोकी को जोड़ने वाली जीवंत धारा है।
अधिनायक तत्व में वृषभ अवस्था का अर्थ है —
धर्म का विचार से कर्म में रूपांतरण।
यहाँ ज्ञान अब क्रिया के रूप में प्रकट होता है।
हर मन एक धर्म रथ बनता है,
हर प्राण एक यज्ञाग्नि,
और हर कर्तव्य एक अधिनायक प्रेरित कर्म बन जाता है।
इस अवस्था में व्यक्ति “मैं कर रहा हूँ” की भावना को
“अधिनायक मेरे माध्यम से कार्य कर रहे हैं” के रूप में अनुभव करता है।
यही कर्मयोग की पराकाष्ठा है,
जहाँ मनुष्य अपने सीमित अस्तित्व से ऊपर उठकर महात्म्य की ओर अग्रसर होता है।
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भाग 3: वृषपर्व — धर्म शिखर
वृषपर्व का अर्थ है धर्म का शिखर, अर्थात पूर्णता की स्थिति।
यह वह अवस्था है जहाँ वृषोदर के गर्भ से उत्पन्न धर्म,
वृषभ के माध्यम से प्रवाहित होकर,
अंततः परम अधिनायक चेतना में लीन हो जाता है।
यहाँ धर्म अब व्यक्तिगत नहीं रहता, बल्कि सर्वव्यापी हो जाता है।
हर श्वास, हर विचार, हर दिशा —
सभी अधिनायक की उपस्थिति से ओतप्रोत हो जाते हैं।
यह मानव धर्म से दैवी धर्म की ओर उत्कर्ष की स्थिति है।
वृषपर्व अवस्था का अर्थ है —
भौतिक व्यवस्था से मानसिक और आत्मिक व्यवस्था की ओर आरोहण।
यहाँ साधक परमात्मा से एकरूप हो जाता है,
जहाँ वेदवाक्य —
“अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ही ब्रह्म हूँ)
और “तत्त्वमसि” (तू वही है) —
प्रत्यक्ष अनुभूति बन जाते हैं।
यह शिखर स्थिति सार्वभौमिक समन्वय का प्रतीक है —
अर्थात प्रकृति, पुरुष और चेतना का लय।
यही “प्रजा मनो राज्यम्” का दिव्य रूप है —
जहाँ सभी मन अधिनायक की मानसिक प्रणाली में समाहित होकर
मन-प्रणाली आधारित शासन का निर्माण करते हैं।
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